Devotional stories-Indian Mythological Stories With Moral for Kids
क्यो रामजी ने हँसी पर लगाई रोक -
एक समय की बात है, 14 वर्ष के वनवास के बाद जब भगवान श्री रामचंद्र जी का राज्य अभिषेक हो गया।
राम जी तुरंत हँसी रोक कर सोचने लगे कि दूसरे लोग हँसे तो हंसे, मैं क्यों हँसा लेकिन क्षण भर बाद राम जी को फिर से हँसी आ गई पूरी चेष्टा करने पर भी हंसी नहीं रोक पाए राम जी ने सभा के लोगों से पूछा आप क्यों हँसे।
आप कोई ऐसा उपाय कीजिए जिससे देवता तथा मनुष्य सभी प्रसन्न रहें, ऐसी सब को सुख देने वाली मंगलमय और लक्ष्मी सूचक हँसी से बढ़कर कोई चीज है ही नहीं, हे रघुनंदन वहीं पुरुष उत्तम है जिसका मुख मंडल सदा हंसता हुआ दिखता है और वह पुरुष जिसका मुख सदा क्रोध से युक्त रहता है, लक्ष्मी देवी सदा उनसे अप्रसन्न होती है।
अतः आप मेरी यह बात मान लीजिए। और हँसी से रोक तुरंत हटा दीजिए। रामजी जी ने वाल्मिकी जी कि बात को शिरोधार्य करते हुए बोले हे मुनिवर आप जैसा कहते हैं वैसा ही होगा तब से हंसी पर से रोक हट गई और प्रजा में आनंद उल्लास फिर से छा गया।
और जीवन learn by fun कि तरह जीना चाहिए।
वृत्रासुर का वध-
राजा रानी को बहुत दुख हुआ, जिस माता ने विष दिया था वह भी झूठ मुठ रोने लगी, उस समय देवर्षि नारद जी वहां आए। नारद जी को संसार चाहे इधर कि उधर बाते करने वाला कहे किन्तु नारद जी का हर कार्य से संसार का उध्दार हि होता है। नारद जी ने ध्रुव और प्रहलाद महाराज जी का मार्गदर्शन किया और उनका नाम संसार मे अमर हो गया। नारद जी ने चित्रकेतु राजा को समझाया जो मर गया है वह भगवान के चरणों में गया है ऐसा ही मानना चाहिए जो मरा है उसके लिए बहुत रोने से वह कभी मिलने के लिए नहीं आने वाला है अपने लिए रोना चाहिए।
उसके पश्चात् चित्रकेतु राजा को यमुना जी के किनारे ले गए शेष नारायण का मंत्र दिया। राजा ने बहुत वर्षों तक वहाँ मंत्र जप किया है चित्रकेतु को शेष नारायण का दर्शन हुआ। भगवान ने उसको अपनाया चित्रकेतु भगवान का पार्षद बन गया। विद्याधर लोक का राज्य उसको दिया है
कैलाश में कई ऐसी वनस्पतियां हैं जिसे एक बार खाने से 12 वर्ष तक प्यास नहीं लगती 12 वर्ष तक भूख नहीं लगती है।
जिस दिन चित्रकेतु घूमता हुआ कैलाश आया उसी दिन संयोग से कैलाश में सिद्धों की बड़ी सभा हुई ,अध्यक्ष स्थान में भगवान शंकर विराजमान थे आज का शिव स्वरूप दिव्य था, गोद में माता पार्वती जी को आलिंगन देकर बिठा रखा था।
भगवान शंकर इस प्रकार विराजमान है इसका एक कारण यह था कि, कामदेव शिव जी के साथ युद्ध करने के लिए आया था शंकर भगवान ने कहा एक बार मैंने तुम्हें जला दिया था,तुम्हारी पत्नी बहुत रोने लगी तब मैंने तुम्हें राख से जीवित किया था। क्या तुम भूल गये।
कामदेव ने कहा- महाराज मैं भूला तो नहीं हूं लेकिन मेरे मन में थोड़ी शंका है आप तब समाधि में बैठे हुए थे,में युद्ध करने के लिए आया था। आपने आँखे खोली में जल गया । शत्रु सावधान हो तब युद्ध नहीं करना चाहिए किन्तु शत्रु असावधान हो तब युद्ध करना चाहिए।
भगवान शंकर ने पूछा- तो अब क्या इच्छा है तेरी ।
कामदेव ने कहा- महाराज आप माता पार्वती से दूर क्यों बैठते हो।
शंकर भगवान ने कहा- आखिर तेरी इच्छा क्या है।
भगवान शंकर पार्वती को आलिंगन देकर बैठे हैं।
तब कामदेव बाण मारता है भगवान शंकर पार्वती को आलिंगन देकर बैठे है, कामदेव बाण मारता है ।
कामदेव ने बहुत बाण मारे ताकि शिव पार्वती के मन में विकार आए।
शंकर पार्वती अति शांत थे, कामदेव को निश्चित हो गया कि शिव परमात्मा है, जो काम के अधीन होता है वही जीव है जो कभी काम के अधीन नहीं होता है वही ईश्वर है। भगवान शंकर देव नहीं है देवों के देव हैं महादेव है ,
ये महादेव माता पार्वती को शोभा नही देता।
चित्रकेतु शिवजी की निंदा करने लगा
माताजी ने कहा- एक जन्म के बाद तेरा उद्धार होगा और वही चित्रकेतु नामक राजा, वृत्रासुर हुआ।
वृत्रासुर का वध इंद्र ने अपने वज्र से किया। इंद्र और असूर के बीच 1 वर्ष तक युद्ध चलता रहा और अंततः इंद्र ने वज्र से वृत्रासुर के मस्तक को काट दिया और वृत्रासुर का उद्धार हो गया। और वृत्रासुर भगवान के धाम चला गया।
जहां से जीव को जन्म मरण की चिंता नहीं होती चित्रकेतु
ईश्वर की लीला ईश्वर ही जानते है जीव को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। और ना हि बिना परिस्थितियो को जाने कोई राय दे।
झेन गुरू ने तोड़ा युवा धनुर्धर का घमंड
उसके कंधे को प्यार से थपाथपाकर आश्रम की ओर लौटने का इशारा किया। उनके सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार से युवक की
जान में जान आई। अपनी धनुर्विद्या पर उसका घमंड चूर-चूर हो गया था। रास्ते में झेन गुरु ने उससे कहा, 'तुमने धनुष चलाने में महान कौशल हासिल किया, लेकिन उस मन का कौशल हासिल नही किया जो तीर को चलाता है।' सच है, मन की एकाग्रता साधने पर ही निर्भयता आती है।
राहु-केतु देवता बने
समुद्र-मंथन के फलस्वरूप देव व दानवों को
धनवंतरि ने अमृत से भरा कलश भेंट किया
था। विवाद होने पर भगवान विष्णु ने
मोहिनी-अवतार लेकर समान रूप से बांटने का दायित्व
ले लिया और देवताओं को अमृत व दानवों को
साधारण जल पिलाना तय किया। स्त्री-सौंदर्य से
निर्लिप्त राहु ने विष्णु की इस चालाकी को समझ लिया
और उसने देवों की पांत में बैठकर अमृत पी लिया।
भगवान विष्णु ने जाना तो सुदर्शन चक्र से राहु का सिर
धड़ से अलग कर दिया। राहु का सिर तो वहीं रहा , किंतु
धड़ गौतमी नदी के तट पर जा गिरा। चूंकि राहु अमृत
रूपी संजीवनी पी चुका था, अतऐव उसके शीश व धड़
दोनों जीवित रहे।
चिंतित देवताओं ने भगवान शिव से राहु का शीश
व धड़े पूरी तरह नष्ट कर देने के उपाय की प्रार्थना की ।
शिव ने दिव्य-ऊर्जा व योग बल से देवी चंडिका का
अस्तित्व रच राहु के सर्वनाश का आदेश दिया। चंडिका
राहु के धड़ को राई-रक्ती भी हानि नहीं पहुंचा पाई। तब
ब्रह्मा युद्ध-स्थल पर पधारे। उन्होंने राहु को देवगणों में
शामिल होने का आशीर्वाद दिया। तब राहु ने चंडिका
को अपनी मृत्यु का रहस्य बताया। तत्पश्चात चंडिका ने
धड़ को दो फाड़ करके उसमें संचित अमृत स्वयं पी
लिया। इसके बाद राहु का सिर 'राहु' और धड़ 'केतु'
के रूप में नवग्रहों में स्थापित कर दिए गए।
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